अभिनय महाकाव्य के रचियता का महाप्रयाण

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प्रद्युम्न तिवारी
वो सूरज, जिसकी रोशनी लेकर न जाने कितने सितारे जगमगाये, आज सदा के लिए बुझ गया। अदाकारी की दुनिया के शहंशाह दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान अपनी जिंदगी के 98वें पड़ाव पर इस फानी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहकर हमसे रुखसत हो गये। एक शख्स नहीं, बल्कि कहें एक जमाने ने हमेशा-हमेशा के लिए न टूटने वाली खामोशी को गले लगा लिया। जमाना, जो मुल्क की आजादी से भी पहले के सालों में शुरू हुआ था और इसके साथ चलते-चलते, इसके अहसास को जीते-जीते, इसकी सच्चाइयों की हर पर्त को अपने अनूठे अंदाज में पेश करते-करते एक अदाकार ने अदाकारी की उन बुलंदियों को छू लिया कि वह पूरा जमाना ही उसी के नाम से, दिलीप युग के नाम से जाना जाने लगा। कारण भी है। दिलीप खुद एक्टिंग के स्कूल थे। नूरजहां से लेकर माधुरी दीक्षित जैसी नायिकाओं के साथ काम करके उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि काल नहीं, अभिनय ही उनका सर्वोपरि है।

 

आज कहा जाये तो अभिनय महाकाव्य के रचियता का महाप्रयाण हुआ है। दिलीप साहब की अदाकारी के बारे में क्या कहा जाये। सबसे ज्यादा सात बार फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजे जाने के अलावा दादा साहब फाल्के पुरस्कार भी उनके हिस्से में है। पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान निशान-ए-इम्तियाज पाने का गौरव भी उन्हें हासिल है। अदाकारी में वह ट्रेजडी किंग के रूप में मशहूर हुए लेकिन वास्तव में वह अभिनय क्षेत्र के लीजेंड हो गये थे। 1944 में आयी ‘ज्वार भाटा’ उनकी पहली फिल्म से उन्हें आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। फिल्म में उनके नैराश्य भाव व शिथिलता देखकर फिल्मी आलोचक यहां तक कहने लगे थे कि इस हीरो को अभी विटामिन की गोलियों की जरूरत है।

 

बस फिर क्या था। दिलीप साहब ने शुरू कर दी मेहनत। इसके बाद तो इस शख्सियत ने अपने अभिनय का ऐसा लोहा मनवाया कि मशहूर फिल्मकार सत्यजीत राय ने इन्हें ‘मैथड एक्टर’ की संज्ञा से नवाज दिया। ऐसा हो भी क्यों न। दिलीप अपने चरित्र में ऐसा डूब जाते थे कि लगता ही नहीं था कि सिल्वर स्क्रीन पर दिलीप कुमार हैं। चाहे कामर्शियल व एक्शन फिल्म हो या कामेडी अथवा गंभीर, पर्दे पर दिलीप फिर उसी चरित्र को जीते थे, जो उन्हें पर्दे पर उतारना होता था। फिल्म ‘देवदास’ को ही लें। दिलीप ने ऐसा किरदार निभाया कि मानो शरत चंद्र का देवदास जिंदा हो गया। फिल्म ‘राम और श्याम’ को ही ले लें, श्याम का करेक्टर लोग आज भी भूले नहीं। कहां एक तरफ के वे गंभीर, दीन-दुखी दिखने वाले और कहां दूसरी ओर जाबांज और खिलंदड़ नौजवान।

 

वर्ष 1947 में में रिलीज हुई फिल्म ‘शहीद’ से उनको असली पहचान मिली। दरअसल दिलीप कुमार को ट्रेजेडी किंग की उपाधि इसलिए मिली कि उनकी शुरुआती दौर की फिल्मों जैसे ‘बाबुल’, मेला आदि का अंत बहुत दुखद होता था। एक समय तो दिलीप कुमार एक तरह की मानसिक बीमारी के शिकार हो गये थे। उन्हें लगता था कि एक और दिलीप कुमार उनके सामने खड़ा है। इस पर मनोचिकित्सों ने उन्हें फिल्मी चरित्रों का ट्रैक बदलने की सलाह दी। इसके बाद आयी फिल्म ‘आजाद’। इसमें भरपूर कामेडी थी। फिर कोहिनूर, लीडर, मुगल-ए-आजम, ‘गोपी’ जैसी अनगिनत फिल्मों में दिलीप ने अपने दमदार अभिनय का लोहा मनवाया।

 

यह भी उल्लेखनीय है कि 80 के दशक में समानांतर सिनेमा का चलन प्रारंभ हुआ था तो उसके काफी पहले दिलीप की फिल्म ‘फुटपाथ’ में उनके मर्मस्पर्शी अभिनय और यथार्थवाद की जो झलक मिली, वह बाद के दौर में समानांतर सिनेमा के रूप में आयी श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’, राजकुमार की ‘जागते रहो’ या फिर बलराज साहनी की ‘दो बीघा जमीन’अथवा नसीरुद्दीन और ओम पुरी अभिनीत ‘आक्रोश’, कोई उसकी बराबरी करती नहीं दिखीं। फिल्म ‘कोहिनूर’ में दिलीप जिस प्रकार आइने के सामने खड़े होकर अपने आपसे बात करते हैं, वह दृश्य लैंडमार्क साबित हुआ।

 

यही नहीं, यह दिलीप कुमार ही थे जिन्होंने यह भी सिखाया कि ‘मर्द कैसे नाचता है।’ दिलीप ने फिल्म बनायी थी ‘गंगा-जमुना’। खुद फिल्म के हीरो थे। इस फिल्म में गाना था-‘नैन लड़ जइहैं तो मनवा मा खटक होइबै करी।’ इसमें दिलीप साहब का डांस लैंडमार्क सा बन गया था। इसी तरह फिल्म ‘संघर्ष’ में ‘मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले’ गाने पर उनका किया गया डांस पुरुषों ने ऐसे अपना लिया था कि गाना कोई भी बजे, पांव उसी तरह थिरकते थे।

 

बाद के दौर में दिलीप ने जब फिल्म क्रांति से चरित्र अभिनेता का किरदार निभाना शुरू किया तो भी बुलंदियां उनके कदम चूम रही थी। चाहे ‘कर्मा’ और ‘विधाता’ रही हो या ‘मशाल’, दिलीप के किरदार को लोग आज भी भुला नहीं पाये हैं। यहां फिल्म ‘शक्ति’ का उल्लेख जरूरी है। इसमें दिलीप के सामने अमिताभ ठहरते नजर नहीं आये। बाद में कहा तो यहां तक जाने लगा कि फिल्म की पटकथा दिलीप कुमार को केंद्रित करके ही लिखी गयी थी। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी दिलीप के जाने से फिल्म जगत में एक शून्यता व्याप्त हो गयी है।

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