गुरु का महत्व

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जीवन में गुरु का महत्व सर्वविदित है। गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान व्यक्ति का पूरे जीवन मार्गदर्शन करते हैं। सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। गुरु के ज्ञान के बिना व्यक्ति सामाजिक जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता है।

माता-पिता के रज-वीर्य से सभी प्राणियों का जन्म होता है। दूसरे जन्म का होना, जिसे द्विजत्व कहते हैं, मनुष्य की वास्तविक विशेषता है। यह दूसरा जन्म गायत्री माता और आचार्य पिता की दिव्य शक्तियों के समन्वय से होता है। यज्ञोपवीत संस्कार और गुरुमंत्र की विधिवत् दीक्षा इस दूसरे जन्म की द्विजत्व की घोषणा समझी जाती है। इस घोषणा के बिना किसी को गायत्री का अधिकार नहीं मिलता।

शास्त्रों में इसीलिए कहा गया है कि गायत्री का अधिकार द्विजों को है। निगुरा अर्थात बिना गुरु का भारतीय समाज में एक गाली है। क्योंकि हर मनुष्य को अपने मानसिक विकास, सुधार, परिमार्जन, अंकुर एवं निर्माण के लिए एक सुयोग्य, अनुभवी, सच्चरित्र विद्वान व्यक्ति की सुसम्बद्ध, सहायता की आवश्यकता होती है। जिसे यह सहायता प्राप्त नहीं वह सुसंस्कृत कैसे बनेगा?

प्राचीनकाल में हर व्यक्ति एक धर्म गुरु होता था। माता, पिता और आचार्य इन्हें केवल ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपमा दी गयी है। कहा गया है कि गायत्री मंत्र कीलित है। जब तक उसका उत्कीलन न हो तब तक वह सफल नहीं होता। उत्कीलन का वास्तविक तात्पर्य है, प्राण-दीक्षा द्वारा मंत्र की शक्ति-स्फुलिंग अपने अंतराल में स्थापित करना। जैसे होली की अग्नि लाकर लोग अपने घरों की छोटी होली जलाते हैं, उसी प्रकार किसी गायत्री के नैष्ठिक उपासक से उसकी चिंगारी लेकर दीक्षा विधि द्वारा भीतर स्थापित की जाती है तो साधना में आशाजनक सफलता मिलती है।

साधक को अपनी साधना में गायत्री माता और गुरु पिता को अपने आत्मिक द्वितीय जन्म का प्रसवित मानना चाहिए। दोनों के प्रति श्रद्धा रखने वाला साधक इस महामंत्र की साधना में सफल हो सकता है। एकांगी साधना वाला व्यक्ति ठीक प्रकार पथ प्रदर्शन एवं प्रकाश प्राप्त न होने से अपना बहुमूल्य समय निष्फल गंवाता रहता है। गायत्री शक्तिमान हैं। पर उस शक्ति का जागरण गुरु द्वारा होता है। निगुरा साधक बहुत प्रयत्न करने पर भी स्वल्प परिणाम ही प्राप्त करता है।

इसीलिए उपासकों को उचित है कि आध्यात्मिक माता-पिता के लिए गायत्री और गुरु के लिए समुचित श्रद्धा रखें। गायत्री की शक्ति, गति, क्रिया और प्रतिक्रिया को देखते हुए सूक्ष्म दर्शी ऋषियों ने उसका चित्रण पंचमुखी और दशभुजी रूप में किया है। प्रणव, व्याहृति और मंत्र के तीन भाग यह गायत्री के पांच मुख हैं। पांच देव भी इन पांच मुखों के प्रतीक हैं।

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